किसका ग्रहण और किसका पिंडदान?
ग्वालियर:- @ राकेश अचल
हम सनातनियों के पास हर काम के लिए अवसर ही अवसर और परंपराएं ही परंपराएं हैं. हम अपना शुभ, अशुभ खुद चुन सकते हैं लेकिन चुनते नहीं हैं. हमारे यहाँ योग--संयोग भी खूब बनते बिगडते हैं. ये अच्छे भी होते हैं और बुरे भी,इसीलिए हम दुनिया के दूसरे हिस्सों से भिन्न हैं।
भारत में आज से पितृपक्ष शुरु हो गया है. पितृपक्ष को कोई श्राद्धपक्ष कहता है तो कोई कडवे दिन.कोई महालय पक्ष कहता है तो कोई अपर पक्ष कहता है. हमारे यहाँ कनागतकहते हैं तो कहीं जितिया,और सोल्ह श्राद्ध भी कहा जाता है.इसे कुआर या आश्विन के कृष्णपक्ष के रूप में भी जाना जाता है. पितृपक्ष का नाम एक विधान, एक निशान या एक देश, एक चुनाव जैसा नहीं किया जा सकता।
पितृपक्ष की तरह दुनिया के हर देश में कोई न कोई आयोजन होता है.चीन में पितृपक्ष की तरह चिंग मिंग उत्सव या टोंब स्वीपिंग डे मनाया जाता है. ये हर साल अप्रैल में मनाया जाता है।लोग अपने पूर्वजों की कब्र साफ करते हैं, भोजन, फूल और कागज़ की बनी वस्तुएँ चढ़ाते हैं.यह पितृपक्ष जैसा ही है, बस वहाँ कब्रों पर जाकर श्रद्धांजलि दी जाती है।
जापान में पूर्वजों के लिए ओबोन उत्सव होता है. ये अगस्त में मनाया जाता है।मान्यता है कि इन दिनों पूर्वजों की आत्माएँ घर आती हैं।लोग दीपक जलाते हैं, नृत्य (बोन ओडोरी) करते हैं और मंदिरों में पूजा करते हैं।
कोरिया में पितृपक्ष का नाम चुसोक है. ये सितंबर–अक्टूबर में होता है।इसे "हार्वेस्ट फेस्टिवल" भी कहते हैं। लोग अपने पूर्वजों को भोजन अर्पित करते हैं और परिवार मिलकर उनकी याद में अनुष्ठान करते हैं।मैक्सिको में इसे डे ऑफ द डेड कहा जाता है ये 1–2 नवंबर को मनाया जाता है।लोग कब्रों को सजाते हैं, मोमबत्तियाँ जलाते हैं, रंग-बिरंगे खोपड़ी के प्रतीक और फूलों से सजावट करते हैं।यह बहुत रंगीन और उत्सव जैसा माहौल होता है।
फिलीपींस वाले अरो नग मगा पटाय के रूप में अपने पूर्वजों को याद करते हैं.ये 1 नवंबर को मनाया जाता है।परिवार कब्रिस्तान जाते हैं, मोमबत्तियाँ जलाते हैं और पिकनिक जैसा माहौल बनाकर पूर्वजों को याद करते हैं।मिस्र (प्राचीन काल में)"फेस्टिवल ऑफ द डेड" मनाया जाता था।मृतकों की आत्मा को संतुष्ट करने के लिए भोजन और भेंट दी जाती थी।ईसाई परंपरा में इसे ऑल सेंट्स डे और ऑल सोल्स डे कहते हैं. इस्लाम वालेशबे बारात मनाते हैं।
भारत में ये काम पूरे 15 दिन चलता है.भारत में पितृपक्ष (श्राद्ध पक्ष) हिंदू परंपरा में बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। यह हर साल भाद्रपद मास की पूर्णिमा के अगले दिन (पितृपक्ष अमावस्या तक, लगभग 15 दिन) मनाया जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य पूर्वजों की आत्माओं का स्मरण और तर्पण करना है।
पितृपक्ष में श्राद्ध और तर्पण,पूर्वजों के नाम से जल, तिल और पिंडदान (चावल के गोले) अर्पित किए जाते हैं।यह प्रायः नदी, तालाब या किसी पवित्र जल स्थल पर किया जाता है।भोजन अर्पण,पितरों को भोजन समर्पित किया जाता है, जिसे बाद में ब्राह्मणों, पंडितों या जरूरतमंदों को खिलाया जाता है।भोजन में खासतौर पर खीर, पूड़ी, दाल, कद्दू, चावल, घी आदि बनाए जाते हैं।दान-पुण्यकपड़े, अनाज, सोना-चांदी, पात्र, और दक्षिणा का दान किया जाता है।
मान्यता है कि यह पितरों को शांति और परिवार को आशीर्वाद देता है।
पितृपक्ष में पूर्वजों का आह्वान,श्राद्ध करते समय "पितृ देवताओं" और तीन पीढ़ियों तक के पूर्वजों (पिता, दादा, परदादा आदि) को स्मरण किया जाता है।कभी-कभी मातृ पक्ष के लोग भी शामिल किए जाते हैं।इसके लिए व्रत और नियम हैं.श्राद्ध करने वाला (कर्मकांडी व्यक्ति) उस दिन सात्त्विक आहार लेता है।पितृपक्ष में शुभ कार्य (जैसे शादी, गृह प्रवेश) नहीं किए जाते।)
पितृपक्ष का अंतिम दिन सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है।इसे पितृ अमावस्या या सर्वपितृ अमावस्या भी कहते हैं.इस दिन सभी पितरों (जिनका श्राद्ध तिथि ज्ञात हो या न हो) का सामूहिक श्राद्ध किया जाता है।ये सब हम पूर्वजों के मोक्ष के लिए करते हैं. और जब थक जाते हैं तो गयाजी जाकर पिंडदान और तिलांजलि देकर पितृपक्ष मनाने से मुक्त हो जाते हैं।
रामचरित मानस में श्रीराम ने अपने पिता जनक का ही नहीं बल्कि गीधराज जटायु का भी पिंडदान किया था. लेकिन मोक्ष की लालसा हम जीवितों में भी है. सगुनोपासक मोक्ष नहीं लेते. रामचरित मानस में कहा गया है कि-
सगुनोपासक मोच्छ न लेहीं। तिन्ह कहुँ राम भगति निज देहीं॥
बहरहाल मेरा कहना है कि हमें न मोक्ष की कामना करना चाहिए और न वैतरणी पार करने की फिक्र करना चाहिए. हमारे पूर्वज तो तभी खुश हो सकते हैं उन्हे तभी मोक्ष मिल सकता है जब हम घृणा का, ईर्ष्या का, सांप्रदायिकता का, वैमनस्य का, संकीर्णता का, कटुता का, कट्टरता का पिंडदान कर दें. इन सबको तिलांजलि दे दें. हमारे पूर्वज ऊपर से जब ननीचे देखते हैं तो देश की दुर्दशा देखकर दृवित हो जाते होंगे. हमारे पूर्वज असंख्य हैं जिन्होने इस देश को आजाद कराने में 1947 के पहले भी शहादतें दीं और बाद में भी.ये बात मुमकिन है आपको कडवे दिनों की तरह कडवी लगे लेकिन इसकी जरुरत है. जांच कर देखिए. देश के लोकतंत्र को राहु-केतु से बचाना, मुक्ति दिलाना ही पितृ सेवा है. आज का चंद्रग्हण यही संदेश देता है।
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